अध्याय ९

 

प्रकृति की मुक्ति

 

 

हमारी सत्ता के दो पक्ष हैं, एक तो अनुभव करनेवाली चेतन आत्मा और दूसरा, कार्यवाहिका प्रकृति, जो आत्मा को सतत और विविध रूप में अपने अनुभाव प्रदान कर रही है; ये दोनों पक्ष मिलकर हमारी आन्तरिक अवस्था की सभी वृत्तियों को तथा उसकी प्रतिक्रियाओं को निर्धारित करते हैं । प्रकृति घटनाओं का स्वरूप तथा अनुभव लेनेवाले करणों के रूप पुरुष के सामने प्रस्तुत करती है, आत्मा अनुभव के सम्पर्क में आने पर या तो इन घटनाओं के प्रति प्रकृति के द्वारा निर्धारित प्रतिक्रिया को अनुमति प्रदान करती है या फिर वह किसी और प्रतिक्रिया को निर्धारित करने के लिये एक संकल्प करती है जिसे वह प्रकृति पर बलपूर्वक थोपती है । करणों की अहम्मय चेतना तथा कामनात्मक सकल्पशक्ति को दी हुई स्वीकृति अनुभव की निम्नतर भूमिकाओं में उतरने के लिये आत्मा की आरम्भिक अनुमति है । इन भूमिकाओं मे वह अपनी सत्ता की दिव्य प्रकृति को भूल जाती है; अतः अहं-चेतना तथा कामनामय संकल्प का परित्याग करना एवं मुक्त आत्मा को तथा सत्ता की दिव्यानन्दमय संकल्पशक्ति को पुन: प्राप्त करना ही आत्मा की मुक्ति है । पर दूसरी ओर, कुछ अन्य वस्तुएं भी हैं जिन्हें स्वयं प्रकृति अपने अंशदानों के रूप में इस जटिल मिश्रण में मिला देती है, जब एक बार आत्मा की उक्त प्रथम एवं आरम्भिक अनुमति प्राप्त हों जाती है तथा उसे सम्पूर्ण बाह्य कार्य-व्यापार का नियम बना दिया जाता है तब प्रकृति अपनी क्रियाओं और रचनाओं-विषयक आत्मा के अनुभव में अपने अंशदानों को बलपूर्वक मिला देती है । प्रकृति के मौलिक अंशदान दो हैं, गुण और द्वंद्व । प्रकृति की जिस निम्न क्रिया में अर्थात् अपरा प्रकृति में हम जीवन यापन करते हैं उसके अन्दर कुछ एक मूल गुण हैं, वे गुण उसकी निम्नता का सम्पूर्ण आधार हैं । मन, प्राण और शरीर-रूपी अपनी प्रकृति की शक्तियों से युक्त आत्मा पर इन गुणों का सतत प्रभाव पड़ने के परिणामस्वरूप आत्मा को एक विभक्त एवं विषमतापूर्ण अनुभव प्राप्त होता हैं, उसके अन्दर विरोधी वस्तुओं के द्वंद्व की सृष्टि होती है, उसके समस्त अनुभव में एक हलचल उत्पन्न होती है और वह विपरीत वस्तुओं के किंवा संयुक्त होनेवाले भावात्मक और अभावात्मक तत्त्वों के स्थायी जोड़ों अर्थात् द्वंद्वों के बीच झूलती रहती है या इनका एक मिश्रण बनी रहती है । अतएव अहंकार और कामनामय संकल्प सें पूर्ण मुक्ति का परिणाम यह होगा कि आत्मा अपरा प्रकृति के गुणों से अतीत होने की अवस्था, त्रैगुणातीत्य को प्राप्त कर लेगी, इस मिश्रित और विषमतापूर्ण अनुभव से मुक्त हो जायेगी तथा प्रकृति की द्वंद्वमय क्रिया का अन्त या समाधान हो जायेगा । पर प्रकृति के पक्ष में

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भी मुक्ति दो प्रकार की होती है । मुक्ति का पहला रूप प्रकृति के बन्धन से छूटकर आत्मा के प्रशान्त आनन्द में पहुंच जाना है । प्रकृति की मुक्ति का इससे परतर रूप वह है जिसके द्वारा वह दिव्य कोटि की प्रकृति में तथा विश्वानुभव प्राप्त करने की आध्यात्मिक शक्ति में परिणत हों जाती है; इस प्रकार की मुक्ति परम शान्ति को ज्ञान, शक्ति, आनन्द और प्रभुत्व के परम क्रियाशील आनन्द से परिपूरित कर देती है । परमोच्च आत्मा और उसकी पस प्रकृति का दिव्य एकत्व ही सर्वांगीण मुक्ति है

 

    क्योंकि प्रकृति आत्मा की शक्ति है, उसकी क्रिया मूलतः गुणरूप ही होती है । कोई यहांतक कह सकता है कि प्रकृति आत्मा के अनन्त गुणों की सत्तात्मक शक्ति एवं उनका कार्यगत विकासमात्र  है । बाकी सब चीजें तो उसके बाह्य एवं अधिक यान्त्रिक रूपों से सम्बन्ध रखती हैं; पर गुणों का यह खेल मूल वस्तु है, शेष सब तो इसका परिणाम एवं यान्त्रिक संयोग है । जब एक बार हम मूल शक्ति और गुण की क्रिया को सुधार लेते हैं तो शेष सब कुछ अनुभवग्राही पुरुष के नियन्त्रण के अधीन हो जाता है । पर वस्तुओं की निम्न प्रकृति में अनन्त गुणों का खेल एक सीमित मान-प्रमाण, तथा विभक्त एवं संघर्षमय क्रिया के अधीन होता है, ऐसे परस्पर-विरोधी द्वंद्वों तथा उनके विरोधों की प्रणाली के अधीन होता है जिनमें सामंजस्यों की किसी व्यावहारिक गतिशील प्रणाली को स्थापित करके सक्रिय बनाये रखना होता है; सामंजस्य में लाये हुए इन विरोधों एवं परस्पर-विरोधी गुणों में तथा अनुभव की विषम शक्तियों और प्रणालियों में एक केवल कामचलाऊ, अपूर्ण एवं अनिश्चितप्राय समझौता या कोई अस्थिर एवं परिवर्तनशील सन्तुलन बलपूर्वक स्थापित किया जाता है; इन सबकी क्रीड़ा उन तीन गुणों की आधारभूत क्रिया के द्वारा संचालित होती है जो प्रकृति के रचे हुए समस्त पदार्थों में एक-दूसरे के साथ मिले हुए हैं तथा परस्पर संघर्ष भी करते रहते हैं । सांख्य-प्रणाली में, जिसे भारत के दार्शनिक चिन्तन और योग के सभी सम्प्रदाय इस प्रयोजन के लिये सर्वसामान्य रूप सें अंगीकार करते हैं, इन तीन गुणों का सत्त्व, रजसू और तमसू--ये तीन नाम दिये गये हैं; तमसू निष्कियता का तत्त्व एवं उसकी शक्ति है; रजसू क्रिया, आवेश प्रयत्न, संघर्ष और आरम्भ का तत्त्व है, सत्त्व सात्म्यकरण, सन्तुलन और सामञ्जस्य का तत्त्व है । इस वर्गीकरण का दार्शनिक आधार क्या है इससे हमें कुछ मतलब नहीं; पर अपने मनोवैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक आधार की दृष्टि से यह अत्यधिक क्रियात्मक महत्त्व की वस्तु है, क्योंकि ये तीन तत्त्व सभी पदार्थों में व्याप्त है, उन्हें उनकी सक्रिय प्रकृति का मोड़ प्रदान करने के लिये, उनका परिणाम और उनकी क्रियान्विति निर्धारित करने के लिये मिलकर काम करते हैं, और हमारे

 

     ' इस विषय पर कर्मयोग में विचार किया जा चुका है । यहां प्रकृति के सामान्य रूप और सत्ता कई पूर्ण मुक्ति के दृष्टि-बिन्दु से इसका पुनः निरूपण किया गया है । 

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आन्तरिक अनुभव में उनकी विषम क्रिया हमारे सक्रिय व्यक्तित्व, हमारे स्वभाव एवं हमारी प्रकृति के वैशिष्टय का और किसी अनुभव के प्रति हमारी मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया के विशेष स्वरूप का गठन करनेवाली शक्ति है । हमारे अन्दर होनेवाले कर्म और अनुभव का समस्त स्वरूप प्रकृति के इन तीन गुणों या अवस्थाओं में से किसी एक की प्रधानता एवं इनकी आनुपातिक परस्पर प्रतिक्रिया के द्वारा निर्धारित होता है । व्यक्तिभावापन्न आत्मा इनके सांचे मे ढलने के लिये मानों बाध्य ही होती है; साथ ही इनपर किसी प्रकार का स्वतन्त्र नियन्त्रण रखने की अपेक्षा कहीं अधिक वह प्रायः इनके नियन्त्रण में ही रहती है । वह मुक्त तभी हो सकती है यदि वह इनकी विषम क्रिया तथा इनके अपर्याप्त मेल-मिलापों एवं अनिश्चित सामंजस्यों के कष्टप्रद कलह की स्थिति से ऊपर उठ जाये तथा उसका परित्याग कर दे; इसके लिये वह चाहे इनकी क्रिया की अर्द्ध-व्यवस्थित अवस्था से मुक्त होकर पूर्ण शान्ति एवं निश्चलता का आश्रय ले या फिर प्रकृति की इस निम्नतर प्रवृत्ति से ऊपर उठकर इन गुणों की क्रिया पर उच्चतर नियन्त्रण स्थापित करे या उसका रूपान्तर ही कर डाले । या तो उसे इन गुणों से रहित हो जाना होगा या इन्हें अतिक्रम करना होगा ।

 

    ये गुण हमारी प्राकृत सत्ता के प्रत्येक भाग पर अपना प्रभाव डालते हैं । निःसन्देह इनका प्रबलतम सापेक्ष प्रभुत्व इसके तीन विभिन्न अंगों अर्थात् मन, प्राण और शरीर पर है । तमस् अर्थात् जड़ता का तत्त्व, जड़ प्रकृति में तथा हमारी भौतिक सत्ता में सबसे अधिक प्रबल है । इस तत्त्व की क्रिया दो प्रकार की होती है, शक्तिसम्बन्धी जड़ता और ज्ञानसम्बन्धी जड़ता । जिस वस्तु या व्यक्ति पर प्रधान रूप से तमस्का शासन होता है उसकी शक्ति मन्द क्रिया एवं निष्क्रियता की ओर या फिर एक ऐसी यान्त्रिक क्रिया की ओर प्रवृत्त होती है जिसपर उसका नहीं बल्कि अन्धकारमय शक्तियों का अधिकार होता है, वे शक्तियां उसे क्रिया-शक्ति के एक यान्त्रिक चक्र में घुमाती रहती हैं । इसी प्रकार वह अपनी चेतना में निश्चेतना या आवृत अवचेतना अथवा अनिच्छा-मूलक, मन्द या किसी प्रकार की यान्त्रिक सचेतन क्रिया की ओर मुड़ जाता है; उस क्रिया को अपनी शक्ति के सम्बन्ध में कोई चेतन बोध नहीं होता, बल्कि वह एक ऐसे बोध के द्वारा परिचालित होती है जो उसे अपने से बाह्य या कम-से-कम अपनी सक्रिय चेतनता से छुपा हुआ प्रतीत होता है । उदाहरणार्थ, हमारे शरीर का मूल तत्त्व अपने स्वभाव में जड़ और अवचेतन है, एक यान्त्रिक एवं अभ्यस्त स्वयं-चालित क्रिया के सिवा वह और कुछ नहीं कर सकता : यद्यपि अन्य प्रत्येक करण की भांति उसमें भी क्रिया का तत्त्व अर्थात् रजोगुण और उसकी स्थिति तथा क्रिया के सन्तुलन का तत्त्व अर्थात् सत्त्वगुण--दोनों विद्यमान हैं, प्रतिक्रिया करनेवाला एक सहजात तत्त्व एवं एक गुप्त चेतना .विद्यमान है, तथापि उसकी राजसिक क्रियाओं के एक बहुत बड़े भाग का संचालन प्राण शक्ति ही करती है और उसे अपनी समस्त प्रकट चेतना मनोमय 

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पुरुष से ही प्राप्त होती है । रजस्तत्त्व या रजोगुण का प्रबलतम प्रभुत्व प्राणिक प्रकृति पर है । हमारे अन्दर का प्राणतत्त्व ही सबसे प्रबल एवं क्रियाशील चालक-शक्ति है, पर पार्थिव प्राणियों मे प्राणिक शक्ति कामना-शक्ति के अधिकार में है; कामना ही मनुष्य और पशु की अधिकांश गति और क्रिया की सबसे प्रबल प्रवर्तिका है, इसका प्रभुत्व इतना प्रबल है कि बहुत-से लोग इसे समस्त कर्म की जनक और हमारी सत्ता का आदि मूलतक समझते हैं । अपिच, क्योंकि रजस् अपने को एक ऐसे जड़ प्राकृतिक जगत् में पाता है, जो निश्चेतना तथा यन्त्रवत् चालित तमस् के तत्त्व से अपना कार्य आरम्भ करता है, उसे एक बड़ी भारी विपरीत शक्ति का सामना करते हुए अपना कार्य करना पड़ता है; अतएव, उसका सम्पूर्ण कार्य एक प्रयत्न एवं संघट्ट का तथा स्वत्व-प्राप्ति के लिये एक ऐसे आक्रान्त एवं बाधायुक्त संघर्ष का रूप ग्रहण कर लेता है जो प्रत्येक पग पर एक सीमाकारी दुर्बलता, निराशा और वेदना से पीड़ित होता है : यहांतक कि उसे प्राप्त होनेवाली सफलताएं भी अनिश्चित-सी होती हैं, प्रयत्न की प्रतिक्रिया के द्वारा सीमाबद्ध और क्षत-विक्षत हो जाती हैं और इसलिये बाद में हमें उनकी परिमितता और क्षणभंगुरता का स्वाद लेना पड़ता है । सत्त्व के तत्त्व अर्थात् सत्त्वगुण का प्रबलतम प्रभुत्व मन पर है, मन के उन निम्नतर भागों पर तो कुछ विशेष नहीं जो राजसिक प्राणशक्ति के द्वारा शासित हैं, पर बुद्धि तथा बुद्धिप्रधान संकल्प-शक्ति पर अत्यधिक मात्रा में हैं । बुद्धि, तर्कशक्ति तथा बुद्धिप्रधान संकल्पशक्ति अपने सत्त्वगुणप्रधान स्वभाव के कारण बाह्य जगत् के साथ ज्ञान तथा बोधमय संकल्पशक्ति के द्वारा सात्म्य स्थापित करने के सतत प्रयत्न की ओर प्रेरित होती हैं, साथ ही वे एक सन्तुलन, किसी प्रकार की स्थिरता के तत्त्व एवं किसी नियम को तथा स्वाभाविक घटना एवं अनुभूति के परस्पर-विरोधी तत्त्वो के सामंजस्य को प्राप्त करने के लिये अनवरत यत्न करने में भी प्रवृत्त होती है । इस प्रकार की तुष्टि को सत्त्वगुण नाना प्रकार से तथा तुष्टिलाभ की नाना मात्राओं में प्राप्त करता है । सात्म्य, सन्तुलन और सामंजस्य की प्राप्ति के परिणामस्वरूप सदा ही सुख, आराम, प्रभुत्व और सुरक्षा की एक सापेक्ष, पर कम या अधिक तीव्र एवं तृप्तिकारक अनुभूति प्राप्त होती है, वह अनुभूति राजसिक कामना और आवेग की तुष्टि के द्वारा असुरक्षित रूप में प्राप्त होनेवाले अशान्त एवं उग्र सुखों से भिन्न प्रकार की होती है । प्रकाश और सुख सत्त्वगुण के विशेष लक्षण हैं । शरीरधारी और प्राणयुक्त मनोमय प्राणी की सम्पूर्ण प्रकृति इन तीन गुणों के द्वारा निर्धारित होती है ।

 

     परन्तु हमारी सत्ता के संस्थान के प्रत्येक भाग में ये केवल प्रधान शक्तियों की तरह काम करते हैं । ये तीनों गुण हमारी उलझी मानसिक सत्ता के प्रत्येक तन्तु एवं प्रत्येक अंग में मिश्रित और संयुक्त होकर परस्पर संघर्ष करते हैं । हमारे मन का स्वभाव, हमारी बुद्धि एवं संकल्पशक्ति का तथा हमारी नैतिक, सौन्दर्यग्राही,

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भावमय, क्रियाशील और सम्वेदनात्मक सत्ता का स्वभाव इन गुणों के द्वारा ही निर्मित होता है । तमस् उस समस्त अज्ञानता, जड़ता, दुर्बलता एवं अक्षमता को लाता है जो हमारी प्रकृति को पीड़ित करती हैं, तमसाच्छन्न बुद्धि निर्ज्ञान, अबुद्धि, अभ्यस्त विचारों और यान्त्रिक धारणाओं के प्रति आसक्ति, विचारने और ज्ञान प्राप्त करने से इन्कार करने की वृत्ति, संकुचित मन, नवीन विचारों के प्रति बन्द मार्ग, मानसिक अभ्यास का वेगशाली चक्र और अन्धकारमय एवं धूमिल रथान--इन सबका जन्मदाता तमोगुण ही है । वह संकल्पशक्ति की निर्बलता, श्रद्धा, आत्मविश्वास और  'आरम्भ' के अभाव, कार्य करने की अरुचि, प्रयत्न और अभीप्सा से कतराने की वृत्ति तथा तुच्छ और क्षुद्र भावना को उत्पन्न करता है; हमारी नैतिक और क्रियाशील सत्ता में वह निष्क्रियता, भीरुता, नीचता, दीर्घसूत्रता, क्षुद्र और हीन हेतुओं के प्रति असंयत अधीनता, अपनी निम्न प्रकृति के प्रति दुर्बलतापूर्ण वश्यता को जन्म देता है । हमारी भावप्रधान प्रकृति में वह सम्वेदनशून्यता एवं उदासीनता को तथा सहानुभूति एवं उन्मुक्तता के अभाव को लाता है, बन्द आत्मा एवं क्रूर हृदय को जन्म देता है, शीघ्र थक जानेवाले आवेश और वेदनों की मन्दता को उत्पन्न करता है, हमारी सौन्दर्यात्मक और सम्वेदन-प्रधान प्रकृति में वह सौन्दर्यवृत्ति की जड़ता, प्रतिक्रिया-शक्ति की परिमितता एवं सौन्दर्य के प्रति सम्वेदनहीनता को तथा उन सब चीजों को लाता है जो मनुष्य में स्थूल, तामसिक और असंस्कृत भावना को उत्पन्न करती हैं । रजस् हमारी सामान्य सक्रिय प्रकृति को उसकी सभी शुभ और अशुभ वृत्तियां एवं क्रियाएं प्रदान करता है; जब वह सत्त्वगुण के पर्याप्त अंश के द्वारा अभी विशुद्ध नहीं हुआ होता तब वह अहंकार, स्वेच्छाचारिता और उग्रता, बुद्धि की विकृत, आग्रहपूर्ण या अतिरंजक क्रिया, पक्षपात, अपनी सम्मति के प्रति आसक्ति,भूल से चिपके रहने की वृत्ति, सत्य के प्रति नहीं बल्कि हमारी कामनाओं एवं अभिरुचियों के प्रति बुद्धि की अधीनता, धर्मान्ध या साम्प्रदायिक मन, स्वच्छन्दता, गर्व, अभिमान, स्वार्थ, महत्त्वाकांक्षा, काम-वासना, लोभ, क्रूरता, घृणा, ईर्ष्या, नाना प्रकार के प्रेममूलक अहंकार, समस्त पाप और वासनाएं सौन्दर्यबोध की अतिरंजनाएं सम्वेदनात्मक और प्राणिक सत्ता की व्याधियां और विकृतियां--इन सभी की ओर प्रवृत्ति रखता है । जब प्रकृति में तमोगुण प्रधान होता है तो वह अपने निज अधिकार से ही असंस्कृत, जड़ और अज्ञानमय प्रकृतिवाले मनुष्य को जन्म देता है, रजोगुण कर्म, आवेश और कामना के श्वास से चालित, प्राणवन्त, चंचल एवं क्रियाशील मानव की सृष्टि करता है । सत्त्वगुण एक अधिक उच्च कोटि के मानव को जन्म देता है । सत्त्वगुण की देनें ये हैं--विवेकशील और सन्तुलित मन, निष्पक्ष, सत्यान्वेषिणी एवं उन्मुक्त बुद्धि की विशदता, बुद्धि के अधीन या नैतिक भावना के द्वारा परिचालित संकल्पशक्ति, आत्म-संयम, समता, स्थिरता, प्रेम, सहानुभूति, शिष्टता,

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 मिताचार, सौन्दर्यग्राही और भाविक चित्त की सूक्ष्मता, सम्वेदनात्मक सत्ता में सुकोमलता, समुचित ग्रहणशीलता, मितव्यवहार और समतोलता, प्रभुत्वशाली बुद्धि के वश में रहनेवाली और उसके द्वारा परिचालित प्राणशक्ति । सात्त्विक प्रकृति की पूर्णता के निदर्शन होते हैं दार्शनिक, सन्त और ज्ञानी व्यक्ति तथा राजसिक प्रकृति की पूर्णता के राजनीतिज्ञ, योद्धा और शक्तिशाली कर्मवीर । परन्तु सभी मनुष्यों में ये गुण एक-दूसरे के साथ कम या अधिक प्रमाण में सम्मिश्रित पाये जाते हैं, बहुविध व्यक्तित्व देखने में आता है और बहुतों में तो एक गुण का प्रभुत्व दूर होकर एक बड़ी मात्रा में दूसरे की प्रधानता स्थापित हो जाती है एवं कोई एक या दूसरा गुण बारी-बारी से प्रधानता प्राप्त करता रहता है; यहांतक कि बहुतेरों की प्रकृति का वह रूप भी जो उनकी सत्ता का परिचालन करता है मिश्रित ढंग का होता है । जीवन-पट के रंगों का समस्त वैचित्र्य एवं वैविध्य इन गुणों की बुनावट के जटिल नमूने से बना दुआ है ।

 

     परन्तु जीवन की विपुल विविधता से, यहांतक कि मन और प्रकृति की सात्त्विक समस्वरता से भी आध्यात्मिक पूर्णता का स्वरूप गठित नहीं होता । इनसे एक सापेक्ष पूर्णता अवश्य प्राप्त हो सकती है, पर वह अपूर्णता से युक्त होती है, एक प्रकार की अपूर्ण उच्चता, शक्ति एवं सुन्दरता होती है, श्रेष्ठता और महानता की एक परिमित मात्रा तथा बाहर से लादी हुई एवं संदिग्ध रूप से धारण की हुई समतोलता होती है । इनके द्वारा एक सापेक्ष प्रभुत्व भी प्राप्त होता है, पर वह प्राण का शरीर पर या मन का प्राण पर प्रभुत्व होता है, मुक्त और स्वराट् आत्मा का अपने करणों पर स्वतन्त्र प्रभुत्व नहीं । यदि हम आध्यात्मिक पूर्णता प्राप्त करना चाहते हैं तो हमें गुणों के परे जाना होगा । यह स्पष्ट ही है कि तमस् पर विजय पानी होगी; जड़ता, अज्ञान और अक्षमता सच्ची पूर्णता के अंग नहीं हो सकते; पर विश्व-प्रकृति में इसपर विजय रजस् की एक ऐसी शक्ति के द्वारा ही पायी जा सकती है जिसे सत्त्व की बढ्ती हुई शक्ति की सहायता प्राप्त हो । रजस् पर भी विजय पानी होगी; अहंकार, वैयक्तिक कामना और स्वार्थपरायण आवेग सच्ची पूर्णता के अंग नहीं हैं, परन्तु सत्ता को आलोकित करनेवाले सत्त्व की तथा कर्मशीलता को परिमित करनेवाले तमसू की शक्ति के द्वारा ही इसपर विजय प्राप्त की जा सकती है । स्वयं सत्त्व गुण से भी सर्वोच्च या सर्वांगीण पूर्णता प्राप्त नहीं होती; सत्त्व सदा ही सीमित प्रकृति का गुण होता है; सात्त्विक ज्ञान सीमित मन का प्रकाश होता है; सात्त्विक संकल्प भी सीमित बुद्धिप्रधान शक्ति का एक प्रकार का शासन होता है । अपिच, सत्त्व विश्व प्रकृति में अकेले अपने-आप कार्य नहीं कर सकता, बल्कि उसे समस्त कार्य के लिये रजस् की सहायता पर निर्भर करना पड़ता है; परिणामस्वरूप, सात्त्विक कार्य भी सदैव रजस् की त्रुटियों के अधीन रहता है; अहंकार, व्यामूढ़ता, असंगति, एकदेशीय प्रवृत्ति, सीमित एवं अतिरञजित संकल्प जो अपनी सीमाओं के उग्र रूप में अपने-आपको अतिरञजित करता है--ये सभी त्रुटियां साधु-सन्त,

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 दार्शनिक और ज्ञानी के भी विचार और कर्म का पीछा करती हैं । अहंकार सात्त्विक, राजसिक किंवा तामसिक तीनों प्रकार का होता है, उसका उच्चतम रूप ज्ञान या पुण्य का अहंकार होता है; किन्तु मन का अहंकार, चाहे किसी भी प्रकार का क्यों न हो, मुक्ति के साथ असंगत है । अतएव तीनों ही गुणों को अतिक्रम करना होगा । सत्त्व हमें प्रकाश के निकट ला सकता है, पर जब हम दिव्य प्रकृति के ज्योतिर्मय स्वरूप में प्रवेश करते हैं तो सत्त्व का परिमित प्रकाश हमसे दूर हट जाता है ।

 

     इस त्रिगुणातीत अवस्था को प्राप्त करने के लिये साधारणतया निम्न प्रकृति के कर्म के त्याग का आश्रय लिया जाता है । इस त्याग के परिणाम-स्वरूप व्यक्ति कर्म न करने की प्रवृत्ति पर बल देने लगता है । सत्त्व जब अपने-आपको प्रबल करना चाहता है तो वह रजस् से छुटकारा पाने की चेष्टा करता है और इस उद्देश्य से निष्क्रियता-रूपी तामसिक तत्त्व को सहायता के लिये अपने अन्दर पुकार लाता है; यही कारण है कि एक विशेष कोटि के अतिशय सात्त्विक मनुष्य गभीर रूप से आन्तरिक सत्ता में ही निवास करते हैं, पर सक्रिय बाह्य जीवन में वे कदाचित् बिल्कुल ही निवास नहीं करते, या फिर उसमें वे सर्वथा अक्षम और असफल ही रहते हैं । मुक्ति का अन्वेषक इस दिशा में और भी आगे जाता है, वह अपनी प्राकृत सत्ता में आलोकित तमोगुण को, एक ऐसे तमोगुण को जो इस रक्षाकारी आलोक के कारण अशक्तिरूप होने की अपेक्षा कहीं अधिक शान्त-रूप ही होता है, बलपूर्वक स्थापित करता है और इस प्रकार वह सत्त्वगुण को आत्मा की ज्योति में अपना लय करने की स्वतन्त्त्रता प्रदान करने का यत्न करता है । शरीर में, कामना और अहंकार से युक्त एवं सक्रिय प्राणिक पुरुष में तथा बाह्य मन में अचंचलता और स्थिरता बलात् स्थापित कर दी जाती हैं, जब कि सात्त्विक प्रकृति ध्यान में अपनी शक्ति लगाकर, अपने-आपको एकमात्र भजन-आराधन में ही एकाग्र करके, अपने संकल्प को भीतर परम देव की ओर मोड़कर अपने-आपको आत्मा में निमज्जित करने का यत्न करती है । यह श्रमप्रधान मुक्ति के लिये भले ही पर्याप्त हो पर सर्वांगीण सिद्धि की अङ्गभूत स्वतन्त्रता के लिये पर्याप्त नहीं है । यह मुक्ति निष्क्रियता पर निर्भर करती है और अतएव यह पूर्णत: स्वयंस्थित तथा निरपेक्ष नहीं है; ज्यों ही आत्मा कर्म की ओर मुड़ती है त्यों ही वह देखती है कि प्रकृति की क्रिया अब भी पुरानी अपूर्ण चेष्टा ही है । आत्मा को प्रकृति से एक ऐसी मुक्ति तो प्राप्त हो जाती है जो निष्क्रियता के द्वारा उपलब्ध होती है, पर उसे प्रकृति में रहते हुए एक ऐसी मुक्ति प्राप्त नहीं होती जो सक्रियता हो या निष्क्रियता दोनों अवस्थाओं में सर्वांग-पूर्ण और स्वयंस्थित हो । तब यहां प्रश्न उठता है कि क्या ऐसी मुक्ति और पूर्णता सम्भव हैं और इस पूर्ण स्वतन्त्रता की प्राप्ति की शर्त क्या हो सकती है ?

 

     सामान्य धारणा यह है कि ऐसी मुक्ति एवं पूर्णता सम्भव ही नहीं हैं, क्योंकी

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कर्ममात्र निम्न गुणों का ही एक परिणाम होता है, आवश्यक रूप से दोषपूर्ण, सदोषम् होता है, गुणों की क्रिया, विषमता, असमतोलता और चंचल संघर्षमयता से उत्पन्न होता है; पर जब ये विषम गुण पूर्ण सन्तुलन की अवस्था में पहुंच जाते हैं, तो प्रकृति का समस्त व्यापार बन्द हो जाता है और अन्तरात्मा अपनी शान्ति में विश्राम लेती है । हम कह सकते हैं, भगवान् या तो अपनी नीरवता में ही स्थित हो सकते हैं या फिर वे प्रकृति में उसके करणों के द्वारा ही कार्य कर सकते हैं, पर उस दशा में उन्हें उसकी संघर्षमयता तथा अपूर्णता का रूप धारण करना होगा । यह बात मानव-आत्मा के अन्दर भगवान् के साधारण प्रतिनिधि-तुल्य कर्म के बारे में सत्य हो सकती है क्योंकि तब भगवान् देहधारी अपूर्ण मनोमय सत्ता में पुरुष और प्रकृति के वर्तमान सम्बन्धों के अनुसार कर्म करते हैं, पर उनकी पूर्णतामयी दिव्य प्रकृति के सम्बन्धों के सम्बन्ध में यह बात सत्य नहीं । गुणों का संघर्ष निम्न प्रकृति की अपूर्णता में भगवान् की दिव्य प्रकृति का एक प्रकार का अपूर्ण प्रतिनिधित्वमात्र करता है; तीन गुण जिन शक्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं वे भगवान् की तीन मूल शक्तियां हैं जो केवल एक पूर्ण शान्तिमय सन्तुलन में ही स्थित नहीं हैं बल्कि दिव्य कर्म के एक पूर्ण सामंजस्य में एकीभूत भी हैं । आध्यात्मिक सत्ता में तमसू दिव्य शान्ति का रूप धारण कर लेता है; वह शान्ति कोई जड़ता या कार्य करने की अक्षमता नहीं होती बल्कि एक पूर्ण शक्ति होती है जो अपनी सम्पूर्ण सामर्थ्य को अपने अन्दर धारण किये रहती है और अत्यन्त विशाल एवं बृहत् कर्म को भी नियन्त्रित करने तथा शान्ति के नियम के अनुगत बनाने में समर्थ होती है : रजस् आत्मा की कार्यसिद्धिक्षम, आरम्भकारक एवं विशुद्ध संकल्पशक्ति का रूप धारण कर लेता है, वह शक्ति कामना, प्रयत्न एवं आयासपूर्ण आवेश न होकर सत्ता की वही पूर्ण शक्ति होती है जो अनन्त, अक्षुब्ध एवं आनन्दपूर्ण कर्म करने में समर्थ है । सत्त्व एक विकृत मानसिक प्रकाश न रहकर दिव्य सत्ता की स्वयंभू ज्योति बन जाता है जो सत्ता की पूर्ण शक्ति का सारतत्त्व है और दिव्य शान्ति तथा कर्मसम्बन्धी दिव्य संकल्पशक्ति दोनों के एकत्वमय स्वरूप को आलोकित करती है । साधारण मुक्त दिव्य शान्ति में निश्चल दिव्य ज्योति को प्राप्त करती है, पर सर्वांगीण मुक्ति इस महत्तर त्रयात्मक एकता को अपना लक्ष्य बनायेगी ।

 

    जब प्रकृति की यह मुक्ति प्राप्त हो जाती है तो प्रकृति के द्वंद्वों से भी, पूरे आध्यात्मिक अर्थ में, मुक्ति प्राप्त हो जाती है । निम्न प्रकृति में द्वंद्व सात्त्विक, राजसिक और तामसिक अहं की रचनाओं से अभिभूत आत्मा पर गुणों की लीला का अनिवार्य प्रभाव हैं । इस द्वंद्व की ग्रन्थि है अज्ञान जो पदार्थों के आध्यात्मिक सत्य को पकड़ में लाने में असमर्थ है और अपूर्ण बाह्य रूपों पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है, पर उनके आन्तरिक सत्य पर प्रभुत्व रखते हुए नहीं बल्कि

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आकर्षण और विकर्षण, सामर्थ्य और असामर्थ्य, राग और द्वेष, सुख और दुःख, हर्ष और शोक, स्वीकार और विरोध के परस्पर-संघट्ट और बदलते हुए सन्तुलन का क्रीड़ास्थल रहते हुए उनके सम्पर्क में आता है; समस्त जीवन हमारे सामने इन वस्तुओं अर्थात् प्रिय और अप्रिय, सुन्दर और असुन्दर, सत्य और असत्य, सौभाग्य और दुर्भाग्य, सफलता और विफलता, शुभ और अशुभ की विषम ग्रन्थि या प्रकृति के दुहरे जटिल जाले के रूप में उपस्थिति होता है । अपनी रुचियों और अरुचियों के प्रति आसक्ति अन्तरात्मा को शुभ और अशुभ तथा हर्षों और शोकों के इस जाले में बांधे रखती है । मुक्ति का अन्वेषक अपने-आपको आसक्ति से मुक्त कर लेता है, द्वंद्वों को अपनी अन्त:सत्ता से दूर फेंक देता है, पर,  क्योंकि द्वंद्व जीवन का सम्पूर्ण कार्य, उपादान एवं ढांचा प्रतीत होते हैं, इस मुक्ति को प्राप्त करने के लिये जीवन का त्याग ही सर्वाधिक सुगम उपाय दिखायी देगा, भले वह त्याग, जहांतक कि शरीर में रहते हुए करना सम्भव है वहातक, कर्मों का बाह्य एवं भौतिक त्याग हो या कर्मों से एक आन्तरिक निवृत्ति, प्रकृति के सम्पूर्ण कर्म के लिये अनुमति देने से इन्कार-रूप हो या कर्म से मोक्षजनक विरक्ति, वैराग्य । इस प्रकार अन्तरात्मा प्रकृति से पृथक् हो जाती है । तब वह ऊपर बैठी हुई, उदासीन और अविचलित भाव से, प्राकृत सत्ता में गुणों के कलह का निरीक्षण करती है, और मन तथा शरीर के सुख-दुःख को एक निर्विकार साक्षी के रूप में देखती है । अथवा वह अपनी उदासीनता को बाह्य मन में भी बलात् स्थापित कर सकती है और विश्व के कार्य-व्यापार को, जिसमें वह अब पहले की तरह सक्रिय आन्तरिक भाग नहीं लेती, एक अनासक्त द्रष्टा की तटस्थ शान्ति या तटस्थ आनन्द के साथ देखती है । इस साधना की परिणति जन्म के परित्याग और नीरव आत्मा में प्रयाण, मोक्ष, के रूप में होती है ।

 

    परन्तु यह परित्याग मुक्ति की अन्तिम सम्भवनीय परिभाषा नहीं है । पूर्ण मुक्ति तब प्राप्त होती है जब आत्मा वैराग्य पर आधारित इस मुमुक्षुत्व से, मुक्ति की इस उत्कण्ठा से, भी परे चली जाती है; तब आत्मा प्रकृति के निम्नतर कर्म के प्रति आसक्ति तथा भगवान् के विराट् जगद्व्यापार के प्रति समस्त घृणा दोनों से मुक्त हो जाती है । यह मुक्ति अपनी पूर्णता को तब प्राप्त करती है जब आध्यात्मिक विज्ञान प्रकृति के कर्म का अतिमानसिक ज्ञान रखते हुए और अतएव उसे अंगीकार करते हुए तथा उसे आरम्भ करने के अतिमानसिक ज्योतिर्मय संकल्प से युक्त होकर कार्य कर सकता है । विज्ञान प्रकृति में निहित आध्यात्मिक प्रयोजन को, वस्तुओं में विद्यमान भगवान् को, खोज निकालता है; जिन वस्तुओं का बाह्य रूप अमंगलमय प्रतीत होता है उन सब में भी वह मंगलमय आत्मा को ढूंढ लेता है; वह आत्मा उनके अन्दर तथा उनमें से उन्मुक्त हों उठती है, अपूर्ण या विपरीत रूपों के विकार झड़ जाते हैं या फिर वे अपने उच्चतर दिव्य सत्य में रूपान्तरित हो जाते

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 हैं, -वैसे ही जैसे कि गुण अपने दिव्य तत्त्वों में लौट जाते हैं, --और आत्मा उस विराट्, असीम और निरपेक्ष 'सत्य', 'शिव', 'सुन्दर' और आनन्द में निवास करती है जो अतिमानसिक या आदर्श दिव्य प्रकृति है । प्रकृति की मुक्ति आत्मा की मुक्ति के साथ एक हो जाती है, और इस सर्वांगीण मुक्ति के रूप में सर्वांगीण सिद्धि का आधार स्थापित हो जाता है । 

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